बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 37)

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जब से त्रिलोचन के बैल न लेकर बिल्लेसुर ने बकरियाँ ख़रीदी तभी से इस बेचारे को जुटाने के लिये त्रिलोचन पेच भर रहे थे। 

बकरियों के बच्चों के बढ़ने के साथ गाँव में धनिकता के लिये बिल्लेसुर का नाम भी बढ़ा। 

लोग तरह-तरह की राय ज़ाहिर करने लगे।

 क्वार का महीना; बिल्लेसुर की शकरकन्द की बेलें लहलही दिख रही थीं; लोग अन्दाज़ा लड़ा रहे थे कि इतने मन शकरकन्द निकलेगी; बिल्लेसुर छप्पर के नीचे बकरी के दूध में सानकर सत्तू गुड़ खा रहे थे, त्रिलोचन आये।

 बकरी के बच्चों पर एक झौआ औंधाया था, उस पर चढ़कर बैठने के लिये घूमे, लेकिन बिल्लेसुर को हाथ हिलाते देखकर वहीं ज़मीन पर बैठ गये।

 "एक बड़ी बढ़िया ख़बर है, बिल्लेसुर।" बिल्लेसुर से मुस्कराते हुए कहा। उपदेशक की मुद्रा से हथेली उठाकर बिना कुछ बोले, आश्वासन देते हुए, बिल्लेसुर ने समझाया, कुछ देर धीरज रक्खो। 

त्रिलोचन ने पूछा "भोजन करते बोलते नहीं क्या?" गम्भीर भाव से आँखें मूँदकर सिर हिलाते हुए बिल्लेसुर ने जवाब दिया।

 त्रिलोचन अपनी बातचीत का सिलसिला मन-ही-मन जोड़ते रहे।

जल्दी-जल्दी सत्तू खाकर बिल्लेसुर उठे। 

पनाले के पास बैठकर हाथ धोये, कुल्ले किये, अभ्यास के अनुसार जनेऊ में बँधी ताँबे की दंतखोदनी उठाकर दाँत खरिका किये, फिर कुल्ले किये, और एक डकार छोड़कर सर झुकाये हुए कोठरी के भीतर गये।

 त्रिलोचन देखते रहे। बिल्लेसुर एक खटोला निकालकर बाहर ले आये।

डालकर कहा,––"आओ, ज़रा सँभलकर बैठना, हचकना नहीं।" त्रिलोचन उठकर खटोले पर बैठे। एक तरफ़ बिल्लेसुर बैठे।

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